बदलता मौसम खतरे की घंटी
- संपादकीय
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K.W.N.S.-निरंकार सिंह: यह प्राकृतिक जगत पर हमारे अनियंत्रित प्रभाव को उसके साथ सचेत, सोद्देश्य तथा नियोजित अंतर्क्रिया में बदलने से भी संबंधित है। सबसे अधिक, पारिस्थितिकीय तथा सामाजिक समस्या सारी दुनिया से कुछ जीव-जातियों का व्यापक पैमाने पर गायब होना है। दुनिया भर के लोग बदलते मौसम का कहर झेल रहे हैं। बर्फबारीे कई देशों के लिए संकट बन गई है। ठंडे स्थान गर्म हो रहे हैं, जबकि गर्म जगहें ज्यादा गर्म हो रही हैं। तूफान, बाढ़, सूखा और भूकंप की घटनाएं अब विकराल रूप में कहर बरपा रही हैं। कुदरत का अंधाधुंध दोहन और शोषण करना अब हमारे लिए काल बनता जा रहा है। बर्फबारी और तूफान से अमेरिका, कनाडा और जापान मुख्य रूप से प्रभावित हैं।
जापान में 229 सेंटीमीटर तक बर्फबारी हुई है, वहीं अमेरिका में बर्फबारी और तूफान कहर मचाए हुए है। अमेरिका में सब कुछ ठप है। जन-जीवन इस तरह रुक गया है कि आपात स्थिति में भी लोगों को मदद नहीं मिल पा रही है। पूर्वी अमेरिका के कुछ हिस्सों में भीषण हिमपात और कड़ाके की ठंड से मौसम संबंधी मौतों की संख्या बढ़ कर कम से कम अट्ठाईस हो गई है। अमेरिका के मुख्य शहरों में बर्फबारी ने लोगों को परेशानी में डाल दिया है। वहां बम चक्रवात से चौदह लाख से ज्यादा घर और व्यवसाय गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं, क्योंकि इससे बिजली कटौती और तापमान में गिरावट आई है।
जापान में सर्दी से पंद्रह लोगों की मौत हो चुकी है। भारी बर्फबारी के कारण अठारह हजार से अधिक लोग बिजली और पानी से वंचित हो गए थे। जापान के यामागाटा प्रांत के कई क्षेत्रों में 229 सेमी हिमपात हुआ। जापान में मौसम अधिकारियों ने सार्वजनिक परिवहन और बिजली कटौती पर संभावित प्रभावों के लिए सावधानी बरतने का आग्रह किया है। कनाडा में भी स्थिति गंभीर है। बर्फबारी ने लोगों को बहुत परेशानी में डाल दिया है। उत्तरी कनाडा में भयानक ठंड की वजह से तापमान -52 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। हालत यह है कि पानी कुछ सेकंड में जम जा रहा है। बर्फबारी से सामान्य जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त है। सड़क पर बर्फ की चादर बिछ चुकी है। यूरोप के कई देशों में ठंड की जगह गर्मी हो रही है। चीन में ठंड बढ़ने के साथ-साथ कोरोना संक्रमितों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। भारत में भी इन दिनों उत्तर भारत भीषण ठंड की चपेट में है, तो दक्षिण भारत के कई राज्य बेमौसम वर्षा से परेशान हैं।
दुनिया के अनेक हिस्सों में इन दिनों मौसम जिस तरह चरम पर पहुंच रहा है, वह हैरान और चिंतित करने वाला है। पिछले साल कनाडा में तापमान पचास डिग्री सेल्सियस के करीब पहुंच गया, जिससे सैकड़ों लोगों की मौत हो गई थी। जबकि कनाडा को ठंडे मौसम के लिए जाना जाता है। अमेरिका के भी कई राज्यों में भीषण गर्मी से जानें चली गई थीं। कनाडा-अमेरिका में जहां हीटडोम के कारण गर्मी झुलसा रही थी, वहीं न्यूजीलैंड में 'आर्कटिक ब्लास्ट' से बर्फीला तूफान कहर ढा रहा था। हीटडोम गर्म हवाओं का एक पहाड़ होता है, जो बहुत तेज हवा की लहरों के उतार-चढ़ाव से बनता है।
जब तेज लहर चलती है, तो वातावरण के ऊपरी स्तर में मजबूत हवाओं का एक बांध बन जाता है, जिससे यह काफी तीव्र और लंबा हो जाता है। हालांकि सांख्यिकीविदों के अनुसार ऐसी घटना एक हजार साल में एक बार होती है। लेकिन मानव निर्मित गर्मी वातावरण को लगातार गर्म करती जा रही है, इसलिए इस घटना के जल्दी होने की आशंका बढ़ गई है। जबकि आर्कटिक विस्फोट तब होता है, जब ठंड के मौसम में तापमान बहुत कम हो जाने पर अक्षांश वाले इलाकों में बर्फीला तूफान चलने लगता है। इससे पूरे इलाके में मोटी-मोटी बर्फ जम जाती है। इसी को 'आर्कटिक ब्लास्ट' या 'कोल्ड ब्लास्ट' भी कहा जाता है। इस समय अमेरिका इसका शिकार है, जहां कुछ जगह तापमान माइनस पचास डिग्री सेल्सियस तक गिर गया है। अब दुनिया भर के वैज्ञानिक यह अनुभव कर रहे हैं कि तकनीकी विकास से मानव जाति के लिए सबसे बड़ा खतरा पैदा हो गया है। इसके चलते ही आज सांस लेने के लिए न तो शुद्ध हवा है और न पीने के लिए स्वच्छ जल। कई तरह के रसायन और कीटनाशकों के कारण खाद्यान्न पहले से ही प्रदूषित हो चुके हैं। अब मौसम के बदलाव का नतीजा भोगने के लिए तैयार रहिए। एक कोरोना विषाणु ने ही दुनिया को दिखा दिया कि सारी वैज्ञानिक तरक्की के बावजूद प्रकृति के प्रकोप के आगे हम कितने असहाय हैं। कोविड के प्रसार के तीन साल बाद भी हम उसके व्यवहार को पूरी तरह से नहीं समझ पाए हैं। हालांकि पर्यावरणविद बहुत दिनों से पर्यावरण के विनाश से मचने वाली तबाही की चेतावनी देते आ रहे हैं। लेकिन कथित विकास की होड़ में उसे अभी तक लगभग नजरअंदाज ही किया जाता रहा है। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में पिछले दिनों कोरोना के कारण लगाई गई पूर्णबंदी में प्रकृति में जिस तरह से निखार आया था, उसने दिखा दिया कि अगर हम पर्यावरण को तबाह करना बंद कर दें तो अब भी शायद परिस्थिति को संभाला जा सकता है। मगर अब भी अगर हम नहीं संभले तो शायद जल्दी ही वापस लौटने के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। पिछले चालीस-पचास वर्षो में इस धरती के कई जीव-जंतु हमारी कारगुजारियों के कारण विलुप्त हो गए हैं और कई विलुप्ति के कगार पर हैं। पर्यावरण में कई खतरनाक घटनाएं आज साफ-साफ दिखाई दे रही हैं। हर साल साठ लाख हेक्टेयर खेती योग्य भूमि मरुभूमि में बदल रही है। ऐसी ऊसर जमीन का क्षेत्रफल तीस साल में लगभग सऊदी अरब के क्षेत्रफल के बराबर होता है। हर साल एक सौ दस लाख से अधिक हेक्टेयर वन उजाड़ दिए जाते हैं, जो तीस साल में भारत जैसे देश के क्षेत्रफल के बराबर हो सकता है। अधिकांश जमीन जहां पहले वन उगते थे, ऐसी खराब कृषि भूमि में बदल जाती है, जो वहां रहने वाले खेतिहरों को भी पर्याप्त भोजन दिलाने में असमर्थ है। विकास की इस प्रक्रिया को अगर रोका न गया तो महाविनाश निश्चित है। प्राकृतिक पर्यावरण को मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुसार रूपांतरित करना तथा विनाशक प्राकृतिक शक्तियों जैसे भूकंप, टाईफून, चक्रवात, बाढ़ और सूखे, हिमानी भवनों, चुंबकीय और सौर आंधियों, रेडियो सक्रियता, अंतरिक्षीय विकिरणों के विरुद्ध संघर्ष करना अनिवार्य है। पर ऐसे परिवर्तन केवल उन नियमों के अनुसार किए जा सकते हैं, जिनके द्वारा जैव मंडल एक अखंड और स्वनियामक प्रणाली के रूप में काम करता तथा विकसित होता रहे। आज का पर्यावरणीय प्रश्न महज प्रदूषण तथा मनुष्य के आर्थिक क्रियाकलाप के नकारात्मक परिणामों का प्रश्न नहीं है। यह प्राकृतिक जगत पर हमारे अनियंत्रित प्रभाव को उसके साथ सचेत, सोद्देश्य तथा नियोजित अंतर्क्रिया में बदलने से भी संबंधित है। सबसे अधिक, पारिस्थितिकीय तथा सामाजिक समस्या सारी दुनिया से कुछ जीव-जातियों का व्यापक पैमाने पर गायब होना है। प्रमुख जैविकविद जानवरों और पौधों की जातियों के इतने बड़े पैमाने पर लुप्त होने का पूर्वानुमान लगाते हैं, जो प्राकृतिक तथा मनुष्य की क्रिया के फलस्वरूप पिछले करोड़ों वर्षों में हुए उनके विलुप्तीकरण से कहीं अधिक बड़ा होगा। प्रकृति और प्राकृतिक साधनों के अंतरराष्ट्रीय रक्षा संगठन ने अनुमान लगाया है कि अब औसतन हर वर्ष जीवों की एक जाति या उपजाति लुप्त हो जाती है। इस समय पक्षियों और जानवरों की लगभग एक हजार जातियों के लुप्त होने का खतरा है। कुछ जैविकविद यह समझते हैं कि पौधों की किसी एक जाति के लुप्त होने से कीटों, जानवरों या अन्य पौधों की दस से तीस तक जातियां विलुप्त हो सकती हैं।