पिछड़े जिलों की फिक्र
- संपादकीय
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देश के सबसे पिछड़े जिलों को सामाजिक और आर्थिक रूप से विकास की दौड़ में शामिल करने की केंद्र सरकार की आकांक्षी जिला योजना कुछ रंग ला रही है, यह स्पष्ट होता है नीति आयोग की ऐसे जिलों की ताजा रैंकिंग से। इस रैंकिंग के अनुसार पिछड़े जिलों में से तमिलनाडु के विरुधुनगर, ओडिशा के नौपदा और उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर ने विकास के मामले में संतोषजनक प्रदर्शन करते हुए शीर्ष तीन में अपना स्थान बनाया है। बदलाव की इस बयार के लिए यदि किसी को श्रेय जाता है तो मोदी सरकार को, क्योंकि उसने ही पहली बार देश के सबसे पिछड़े यानी विकास से वंचित जिलों की ढंग से सुध ली।
यह उल्लेखनीय है कि इस योजना को प्रांरभ हुए अभी एक साल ही हुआ है। यदि इतने कम समय में कुछ जिलों में स्वास्थ्य, शिक्षा, बुनियादी सुविधाओं, कृषि, जल संसाधन आदि के मामले में कुछ बेहतर होता हुआ दिख रहा है तो यह स्वागतयोग्य है। नि:संदेह इसी के साथ यह सवाल भी किया जाना चाहिए कि आखिर जो काम मूलत: स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकारों का है, वह केंद्र सरकार को क्यों करना पड़ रहा है ।
यह हैरत की बात है कि राज्य सरकारों ने अपने स्तर पर इसकी चिंता नहीं की कि संसाधनहीन जिलों में विकास की रोशनी प्राथमिकता के आधार पर पहुंचाई जाए। कम से कम अब तो राज्य सरकारों को अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना ही चाहिए। इस मामले में उन राज्य सरकारों को खास तौर पर चेतना चाहिए, जिनके पिछड़े जिले केंद्र सरकार की योजना के बाद भी विकास के मामले में फिसड्डी दिख रहे हैं। यह काम संबंधित जिलों के प्रशासन को भी करना चाहिए। आखिर वे उन जिलों के प्रशासन से कोई सबक क्यों नहीं सीखते, जिन्होंने कुछ बेहतर करके दिखाया है ।
यह निराशाजनक है कि कुछ राज्य पिछड़े जिलों को विकसित करने की योजना का लाभ उठाने के मामले में तत्पर नहीं दिख रहे हैं। इससे भी खराब बात यह है कि पश्चिम बंगाल सरकार विकास के मामले में भी घनघोर राजनीतिक क्षुद्रता का परिचय दे रही है। नीति आयोग कुल 115 पिछड़े जिलों में से 111 की रैंकिंग इसीलिए कर सका, क्योंकि ममता बनर्जी सरकार ने अपने तीन पिछड़े जिलों को इस योजना का हिस्सा बनाने से ही इनकार कर दिया। आखिर यह विकास विरोधी और जन विरोधी रवैया नहीं तो और क्या है ।
अपने देश की एक बड़ी समस्या यह है कि राजनीतिक दलों के हर तरह के व्यवहार को राजनीति कह दिया जाता है, भले ही वह कितना भी जन विरोधी क्यों न हो? इससे कुराजनीति और राजनीति का भेद ही खत्म होता है। आज जब संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य पूरे करने की चुनौती है, तब यह नितांत अनिवार्य है कि देश के विकास से वंचित इलाकों को जल्द से जल्द विकसित करने की न केवल चिंता की जाए, बल्कि विकास के कामों को आगे बढ़ाना भी सुनिश्चित किया जाए। इस मामले में उत्तर भारत के राज्यों को कहीं अधिक सक्रियता दिखाने की जरूरत है, क्योंकि विकास के मोर्चे पर दक्षिण और पश्चिम भारत के राज्यों के मुकाबले उनका प्रदर्शन उत्साहजनक नहीं है।