Thursday, 19 September 2024

जम्मू-कश्मीर, लद्दाख में नई शुरुआत होने जा रही है। ऐसे में समय की मांग थी कि प्रधानमंत्री देश के लोगों से सीधे अपनी बात कहें।
जैसी कि उम्मीद थी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राष्ट्र के नाम संबोधन जम्मू-कश्मीर को लेकर किए गए ऐतिहासिक एवं निर्णायक बदलावों पर ही केंद्रित रहा । चूंकि अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने के बाद जम्मू-कश्मीर और साथ ही लद्दाख में एक नई शुरुआत होने जा रही है, इसलिए यह समय की मांग थी किखुद प्रधानमंत्री जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के साथ-साथ देश के लोगों से सीधे अपनी बात कहें। यह अच्छा हुआ कि उन्होंने वक्त की यह मांग पूरी की। राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में उन्होंने यह सही कहा कि एक सपने को पूरा करके एक नई शुरुआत होने जा रही है। इस क्रम में उन्होंने यह रेखांकित कर बिल्कुल सही किया कि यह प्रश्न दशकों से अनुत्तरित ही था कि आखिर अनुच्छेद 370 से जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के लोगों को क्या लाभ मिल रहा था? इस सवाल का जवाब कम से कम उन्हें अवश्य देना चाहिए, जो अनुच्छेद 370 हटाने और राज्य के पुनर्गठन का विरोध कर रहे हैं? उन्हें बताना चाहिए कि वे भेदभाव भरे और अलगाव को बल देने वाले उस प्रावधान की वकालत क्यों कर रहे हैं, जो इस राज्य के दलितों और आदिवासियों के अधिकारों पर कुठाराघात करने के साथ ही राज्य के बाहर के लोगों से विवाह करने वाली युवतियों के अधिकारों का हनन करता था? ऐसे लोगों को प्रधानमंत्री की ओर से इंगित की गई उस विसंगति पर भी कुछ कहना चाहिए, जिसके चलते राज्य के तमाम लोगों को विभिन्न चुनावों में वोट देने का अधिकार नहीं था।
प्रधानमंत्री ने देशवासियों को बल और संबल देने वाले अपने संबोधन में यह स्पष्ट करके तमाम अंदेशों को खत्म करने का ही काम किया कि जम्मू-कश्मीर को केवल कुछ कालखंड के लिए केंद्र के अधीन रखने का फैसला वहां के हालात सुधारने, भ्रष्टाचार एवं आतंकवाद पर लगाम लगाने, विकास और रोजगार निर्माण को गति देने के इरादे से किया गया है। उन्होंने यह जो भरोसा जताया कि जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश बनाए रखने की जरूरत लंबे समय तक नहीं पड़ेगी, उसे पूरा करने में राज्य और खासकर घाटी के लोगों की महती भूमिका होगी। उम्मीद है कि वे अपनी इस भूमिका के महत्व को समझेंगे। वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि प्रधानमंत्री ने साफ तौर पर यह भी कहा है कि वह अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले से असहमत लोगों के विचारों को सुनने-समझने को तैयार हैं। चूंकि प्रधानमंत्री ने जम्मू-कश्मीर के हालात ठीक करने में देश के लोगों से भी सहयोग की अपेक्षा की, इसलिए देशवासियों की ओर से भी समवेत स्वर में यही संदेश उभरना चाहिए कि कश्मीर के साथ कश्मीरी भी हमारे हैं।

 
ममता को नीति आयोग की रीति-नीति से शिकायत हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह उसकी बैठकों में शामिल होने से इनकार करें।  पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नीति आयोग की आगामी बैठक में शामिल होने से इनकार करके यही साबित किया कि वह अभी भी चुनाव के दौर वाली मानसिकता से मुक्त नहीं हो सकी हैं। शायद उन्हें इसकी परवाह नहीं कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार करके वह पश्चिम बंगाल के हितों की ही अनदेखी करेंगी। यह वही ममता बनर्जी हैं, जो एक समय अपने नेतृत्व वाले राजनीतिक मोर्चे का नाम संघीय मोर्चा रख रही थीं, ताकि राज्यों के अधिकारों को प्राथमिकता देती हुई दिख सकें, लेकिन आज वह संघीय ढांचे की भावना के खिलाफ खड़ी होना पसंद कर रही हैं। ऐसा लगता है कि उन्हें जनादेश को स्वीकार करने में मुश्किल हो रही है। वह उन चंद मुख्यमंत्रियों में शामिल थीं, जिन्होंने मोदी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने से इनकार किया। यह भी ध्यान रहे कि वह चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी को न केवल प्रधानमंत्री मानने से इनकार कर रही थीं, बल्कि उनसे फोन पर बात करना भी जरूरी नहीं समझ रही थीं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वह कई केंद्रीय योजनाओं को लागू करने से भी इनकार करती रही हैं। इनमें आयुष्मान भारत योजना भी है और देश के पिछड़े जिलों के विकास की योजना भी।
राजनीतिक खुन्न्स में जनकल्याण और विकास की केंद्रीय योजनाओं से अपने राज्य को वंचित रखना सस्ती राजनीति के अलावा और कुछ नहीं। यह एक तरह की जनविरोधी राजनीति भी है। मुश्किल यह है कि ऐसी सस्ती और जनविरोधी राजनीति का परिचय अन्य अनेक दल भी देते रहते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि बीते दिनों द्रमुक नेताओं ने हिंदी थोपे जाने का हल्ला मचाकर किस तरह सस्ती राजनीति का प्रदर्शन किया। हिंदी के नाम पर द्रमुक और कुछ अन्य दलों के नेता किस तरह जनता को गुमराह कर रहे थे, इसका पता इससे चलता है कि तमिलनाडु उन राज्यों में प्रमुख है, जहां हिंदी को पठन-पाठन का हिस्सा बनाया गया है। बहुत दिन नहीं हुए, जब आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने सीबीआई को राज्य के मामलों की जांच करने की इजाजत देने से इनकार कर दिया था। आंध्र प्रदेश के बाद पश्चिम बंगाल ऐसा करने वाला दूसरा राज्य बना था। आखिर ऐसे मनमाने फैसले लेने वाले नेता किस अधिकार से संघीय ढांचे को मजबूती देने की जरूरत जता सकते हैं? पता नहीं ममता बनर्जी चंद्रबाबू नायडू के राजनीतिक पराभव से कोई सीख लेंगी या नहीं, लेकिन किसी भी मुख्यमंत्री को यह शोभा नहीं देता कि वह संकीर्ण राजनीतिक हितों को इतनी अहमियत दे कि राज्य के हित पीछे छूटते हुए दिखें। लोकसभा चुनावों के समय राहुल गांधी की तरह नीति आयोग को खत्म करने का वादा कर रहीं ममता बनर्जी को इस आयोग की रीति-नीति से शिकायत हो सकती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह उसकी बैठकों में शामिल होने से इनकार करें। नीति आयोग को निष्प्रभावी संस्था बताते हुए उन्होंने योजना आयोग को बहाल करने की मांग की है। यह तय है कि ऐसी मांग करते समय वह इससे भली तरह परिचित होंगी कि ऐसा नहीं होने जा रहा है।

 
 
कोई हैरानी की बात नहीं कि राज्यों में भी कांग्रेस के भीतर उठापटक तेज होती दिख रही है। लोकसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद जब यह उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस अपनी रीति-नीति में व्यापक बदलाव लाएगी, तब वह दिशाहीनता से ग्रस्त दिख रही है। किसी को नहीं पता कि आम चुनाव में पार्टी की करारी पराजय के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ने की जो पेशकश की थी, उसका क्या हुआ? इस बारे में भी कोई खबर नहीं कि एक और करारी हार पर कोई आत्ममंथन किया जा रहा है या नहीं? चूंकि यह पता नहीं कि कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर क्या हो रहा है, इसलिए इस पर हैरानी नहीं कि राज्यों में भी उठापटक तेज होती दिख रही है। तेलंगाना में कांग्रेस के 18 में से 12 विधायक सत्ताधारी तेलंगाना राष्ट्र समिति में शामिल होने को तैयार हैं। पता नहीं कांग्रेस से मुक्त होने को तैयार इन विधायकों की यह इच्छा पूरी होगी या नहीं कि राज्य कांग्रेस का विलय तेलंगाना राष्ट्र समिति में हो जाए, लेकिन अगर वे पार्टी छोड़ देते हैं तो एक और राज्य में कांग्रेस अस्तित्व के संकट से जूझती दिखाई देगी।
कांग्रेस के लिए यह भी शुभ संकेत नहीं कि पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और उनके बड़बोले मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू के बीच तनातनी बढ़ती जा रही है। यदि यह तनातनी और अधिक बढ़ी तो इसका असर कांग्रेस की एकजुटता और साथ ही उसकी छवि पर भी पड़ेगा। पार्टी नेतृत्व को इसकी चिंता करनी चाहिए कि पंजाब में कांग्रेस आपसी कलह का शिकार न होने पाए।
कांग्रेस नेतृत्व को यह समझना होगा कि अगर मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू के रुख-रवैए से नाखुश हैं तो इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। नवजोत सिद्धू एक अरसे से यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें अमरिंदर सिंह की परवाह नहीं है। भले ही नवजोत सिद्धू यह कह रहे हों कि उन्हें हल्के में लिया जा रहा है, लेकिन सच यही है कि वह खुद मुख्यमंत्री को यथोचित महत्व देने को तैयार नहीं दिख रहे हैं। क्या ऐसा इसलिए है, क्योंकि कांग्रेस नेतृत्व उनकी पीठ पर हाथ रखे हुए है?
सच्चाई जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पंजाब के साथ-साथ अन्य अनेक राज्यों में भी कांग्रेस गुटबाजी और दिशाहीनता से ग्रस्त है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच सब कुछ सही नहीं दिख रहा है। जैसे यह नहीं पता कि राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बने रहेंगे या नहीं, वैसे ही इस बारे में भी संशय ही अधिक है कि विभिन्न् राज्यों के पार्टी अध्यक्ष अपने-अपने पद पर बने रहेंगे या नहीं? सबसे खराब बात यह है कि कांग्रेस नेतृत्व और खासकर गांधी परिवार की ओर से ऐसे संकेत दिए जा रहे हैं, जैसे लोकसभा चुनावों में पराजय के लिए उसके अलावा अन्य सब जिम्मेदार हैं। कहीं राज्यों के नेतृत्व पर दोष मढ़ा जा रहा है तो कहीं सहयोगी दलों पर। इसके अतिरिक्त यह भी प्रतीति कराई जा रही है कि भाजपा गलत तौर-तरीके अपनाकर चुनाव जीत गई। इस सबसे तो यही लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व हार के मूल कारणों से जानबूझकर मुंह मोड़ रहा है। ऐसा करना मुसीबत मोल लेना ही है।

 
 
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कश्मीर को सही रास्ते पर लाने के लिए अतिरिक्त प्रयास जरूरी हैं।
भले ही यह स्पष्ट न हो कि पाकिस्तान के विदेश सचिव किस खास मकसद से यकायक भारत आए हैं, लेकिन संभावना यही है कि वह भारतीय प्रधानमंत्री के लिए अपने प्रधानमंत्री का कोई संदेश लेकर आए होंगे, ताकि दोनों देशों के बीच संबंध सुधारने को लेकर कोई सहमति कायम हो सके। यह संभावना इसलिए दिख रही है, क्योंकि एक तो पाकिस्तान ने अरसे बाद अपना हवाई क्षेत्र खोला है और दूसरे, इमरान खान भारत से संबंध सुधारने के लिए व्यग्र दिख रहे हैं।
इस व्यग्रता का एक बड़ा कारण पाकिस्तान की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था है। तमाम उपायों के बावजूद पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था संभलने का नाम नहीं ले रही है। लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के चलते पाकिस्तान ऐसी स्थिति में नहीं कि वह भारत से तनाव जारी रख सके। यह ठीक है कि पाकिस्तान में कुछ लोग यह समझने लगे हैं कि कश्मीर में दखल जारी रखकर भारत से संबंध नहीं सुधारे जा सकते, लेकिन मुश्किल यह है कि वहां एक तबका अभी भी ऐसा है जो छल-बल से कश्मीर हासिल करने के सपने देख रहा है। इस तबके को ताकत प्रदान कर रही है पाकिस्तानी सेना और जिहादी तत्व। फिलहाल यह कहना कठिन है कि इमरान खान अपनी सेना और अपने यहां के जेहादी तत्वों को यह समझाने में सफल हैं या नहीं कि कश्मीर की रट लगाते रहने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है, लेकिन भारत से संबंध सुधार उनके हाथ में ही है। अगर पाकिस्तान अपने सबसे बड़े पड़ोसी देश से संबंध सामान्य नहीं कर पा रहा है तो इसके लिए वही अधिक जिम्मेदार है। यह पाकिस्तान ही है, जिसने संबंध सुधारने के नाम पर भारत को रह-रहकर धोखे दिए हैं। बीते दो दशक तो खास तौर से पाकिस्तान की धोखेबाजी की कहानी ही कहते हैं।
फिलहाल किसी के लिए भी यह कहना कठिन है कि पाकिस्तान से रिश्ते कब और कैसे सामान्य होंगे, लेकिन इस अनिश्चितता का यह मतलब नहीं हो सकता कि कश्मीर को सही रास्ते पर लाने के लिए भारत सरकार की ओर से अतिरिक्त प्रयास न किए जाएं। कश्मीर के हालात ठीक करने का काम तो प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि मोदी सरकार इस बार और अधिक मजबूती से सत्ता में आई है और उसने अनुच्छेद 370 खत्म करने का वादा भी किया है। इस अनुच्छेद को खत्म करने अथवा उसकी खामियों को दूर करने के उपायों पर काम करते हुए मोदी सरकार को यह भी देखना होगा कि कश्मीर के वर्चस्व को कैसे खत्म किया जाए?
जम्मू-कश्मीर की समस्या को केवल घाटी की समस्या के तौर पर देखे जाने के अपने दुष्परिणाम सामने आए हैं। चूंकि कश्मीर ही ज्यादा चर्चा के केंद्र में रहता है, इसलिए जम्मू और लद्दाख की अनदेखी ही होती है। एक समस्या यह भी है कि कश्मीर की हर छोटी-बड़ी घटना को सदैव गंभीर चुनौती के तौर पर देखा जाता है। इसके चलते वहां अलगाववाद ने एक धंधे का रूप ले लिया है। जम्मू-कश्मीर में नए सिरे से परिसीमन की तैयारियों के पीछे का सच जो भी हो, उपद्रवग्रस्त घाटी को पटरी पर लाने के लिए हरसंभव कदम उठाने का समय आ गया है।
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